Monday, April 23, 2007

चाँद और कवि


This poem always inspires me to dream big, dream to change the world, dream for things seemingly impossible ....after all :"The future belongs to those who believe in the beauty of their dreams".Enjoy the poem:



रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,

आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!

उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,

और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?

मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते

और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी

चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।


आदमी का स्वप्न?

है वह बुलबुला जल का आज बनता

और कल फिर फूट जाता हैकिन्तु,

फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?

बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,

देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?

स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?

आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,

आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,

और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,

इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने,

जिसकीकल्पना की जीभ में भी धार होती है,

बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,

स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-

रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,

रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,

स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।


- A poem by Ramdhari Singh 'Dinkar'

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